वजूद

उस दुनिया में अब
कोई नहीं दिखता,
पलकों से ओझल
कोई नहीं दिखता,
पलकों से ओझल
हो गया है सब...
मिट्टी के ढेर में दब गयें हैं
मिट्टी के ढेर में दब गयें हैं
कुछ लोग, कुछ रिश्ते...
पहले पानी मिलता था
जो नदी से बहकर
जो नदी से बहकर
गांव तक आता था...
पर आज उसका रंग
भूरा लाल हो गया है...
पर आज उसका रंग
भूरा लाल हो गया है...
शायद उसमें,
खून के कुछ कतरें छूँट गयें हैं...
एक मंदिर भी था यहाँ,
शायद भगवान रहता था उसमे...
इंसान तो अक्सर नीचे गिरा करता था,
आज भगवान भी गिर गया है...
कभी खुशियां छलकतीं थी यहाँ,
आज गांव ही खो गया है...
आंसू तो दब गये है मिट्टी में,
कुछ बचा भी तो नहीं है जो ढूंढ़ सकूँ...
बस सिसकियों के सहारें,
अपने वजूद को ढूँढ रहा हूँ...!!!
खून के कुछ कतरें छूँट गयें हैं...
एक मंदिर भी था यहाँ,
शायद भगवान रहता था उसमे...
इंसान तो अक्सर नीचे गिरा करता था,
आज भगवान भी गिर गया है...
कभी खुशियां छलकतीं थी यहाँ,
आज गांव ही खो गया है...
आंसू तो दब गये है मिट्टी में,
कुछ बचा भी तो नहीं है जो ढूंढ़ सकूँ...
बस सिसकियों के सहारें,
अपने वजूद को ढूँढ रहा हूँ...!!!
- शुभम साळुंखे, पुणे.
Comments
Post a Comment