एक हादसा ऐसा भी...



पहचाना नहीं मुझको,
हा थोड़ीसी छोटी हूँ,
न्याय ढूंढ़ने निकली थी,
एक गरीब इंसान की बेटी हूँ...

याद है मुझे आज भी,
वो दिन था दसवीं के स्कूल का,
मैं चली उड़ायें खूब ठहाके,
चेहरा मेरा था फ़ूल सा...

रास्ते में ही एक मोड़ पर,
रास्ते के दूजे छोर पर,
एक ग़ुब्बारे वाला रुकता था
वहां रास्ते की उस ओर पर...
आज वहां वो दिखा नहीं,
सुनसान सड़क हो गई वहीं,
कुछ लोग आ गयें धीमें सें,
और ले गए किसी जगह नई...

बस धुंधला धुंधला याद रहा,
वो अंकल जितने दिखतें थे,,
मैं रोती रहीं थी रात भर,
वो धर तमाचा रखतें थे...
बेहोश हो गई वो सब सहते,
जान मेरी अब जा रही थी,
खुली आँख तो पता चला,
एक नदी पास में बह रही थी...

टूट गया था शरीर मेरा,
मैं चल भी नहीं सकती थी,
बता पाती ये सब किसी को,
इतनी कहाँ अब शक्ति थी...
मैं उठी दर्द में कपड़ें संभालें,
और रास्ता ढूंढने चल पड़ी,
घरका आंगन दिखा दूर से,
और वहीं पर थककर गिर पड़ीं...

पापा ने देखा, मुझे उठाया,
देख मुझे वो कांप गए,
मैं लहूलुहान थी खून से,
वो जो भी हुआ था भांप गए..
कुछ घंटे बीतें होंगे शायद,
जब मुझको थोड़ा होश आया,
भागदौड़ ही मची रही जब
अस्पताल में खुद को पाया...

क्या हुआ ये जानतें सब
फिर भी ज़ुबानी लेतें थे,
पत्रकार जो गया नहीं,
की पुलिसवालें आ जातें थे...
वो पूछतें बेटी बताओ,
किसने ये सब किया था,
मुझे पता नहीं वो कौन थे,
जिन्होंने यहां वहाँ ही छुआ था...
जब पकड़ें गयें तो पता चला,
सर्फ दस साल की सज़ा हुई,
चन्द फाइलों में ही छुपकर,
वो केस ही रफादफा हुई...

कुछ साल बीतें उस बात को,
मैं भी वो सब भूल गईं,
पिछली बातें मिट्टी बनकर,
साथ चलें वो धूल हुई...
पता मुझे था जो होना था,
इतना ही न्याय बस मिलना था,
हम गरीब लोग तो होतें है,
और कहाँ हमारा चलना था...

पर अब मैं जाती हूँ स्कूल में,
मुझे मन लगाकर पढ़ना है,
जो भी हो इस ज़िन्दगी में,
खूब आगे बढ़ना है...
हां कुछ पढ़ाना है उनको भी,
जो अब भी अज्ञानी रहतें हैं,
औरत हो तुम औरत ही रहना
ये जान बूझकर कहतें हैं...
फिर माँ ही क्या अपनी,
बहनों को बिकती पाओगें,
बेचोगे तुम और खरीदोगे भी तुम,
बस दरींदें ही कहलाओगें...
अगर नहीं बदलोगे जो तुम,
वहीं के वहीं रह जायेंगें...
जब बदलेगी सोच सभीं की,
तभी तो आगे बढ़ पाएंगे...
- शुभम

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